आख़िरी दलील
तुम्हारी मोहब्बत
अब पहले से ज़्यादा इंसाफ़ चाहती है
सुब्ह बारिश हो रही थी
जो तुम्हें उदास कर देती है
इस मंज़र को ला-ज़वाल बनने का हक़ था
इस खिड़की को सब्ज़े की तरफ़ खोलते हुए
तुम्हें एक मुहासरे में आए दिल की याद नहीं आई
एक गुम-नाम पुल पर
तुम ने अपने आप से मज़बूत लहजे में कहा
मुझे अकेले रहना है
मोहब्बत को तुम ने
हैरत-ज़दा कर देने वाली ख़ुश-क़िस्मती नहीं समझा
मेरी क़िस्मत जहाज़-रानी के कार-ख़ाने में नहीं बनी
फिर भी मैं ने समुंदर के फ़ासले तय किए
पुर-असरार तौर पर ख़ुद को ज़िंदा रक्खा
और बे-रहमी से शाइरी की
मेरे पास एक मोहब्बत करने वाले की
तमाम ख़ामियाँ
और आख़िरी दलील है
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