सहाब-ए-सब्ज़ न ताऊस-ए-नीलमीं लाया

सहाब-ए-सब्ज़ न ताऊस-ए-नीलमीं लाया

वो शख़्स लौट के इक और सर-ज़मीं लाया

अता उसी की है ये शहद ओ शोर की तौफ़ीक़

वही गलीम में ये नान-ए-बे-जवीं लाया

उसी की चाप है उखड़े हुए खड़नजे पर

वो ख़िश्त ओ ख़्वाब को बैरून-ए-अज़मगीं लाया

वो पेश-ए-बुर्रिश-ए-शमशीर भी गवाही में

कफ़-ए-बुलंद में इक शाख़-ए-यासमीं लाया

किताब-ए-ख़ाक पढ़ी ज़लज़ले की रात उस ने

शगुफ़्त-ए-गुल के ज़माने में वो यक़ीं लाया

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