जब अपनों से दूर पराए देस में रहना पड़ता है

जब अपनों से दूर पराए देस में रहना पड़ता है

सान-गुमान न हों जिस का वो दुख भी सहना पड़ता है

ख़ुद को मारना पड़ता है इस आटे दाल के चक्कर में

दो कौड़ी के आदमी को भी साहब कहना पड़ता है

बंजर होती जाती हो जब पल पल यादों की वादी

दरिया बन कर अपनी ही आँखों से बहना पड़ता है

महरूमी की चादर ओढ़े तन्हा क़ैदी की मानिंद

ख़ालम-ख़ाली दीवारों के अंदर रहना पड़ता है

बातें करनी पड़ती हैं दीवार पे बैठे कव्वे से

इस चिड़िया से सारे दिन का क़िस्सा कहना पड़ता है

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