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गुज़रते लम्हों का मातम - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

गुज़रते लम्हों का मातम

सुनहरे ख़्वाबों की वादी में मुद्दतों हम ने

कई मकान बसाए कई मकीं बदले

तमाम उम्र रहा इंतिज़ार का आलम

गुज़रते लम्हों का मातम किया निढाल रहे

न दोस्तों में कोई अब न दुश्मनों में कोई

हमारे माज़ी का हम से हिसाब ले कर जो

हमारे सूद-ओ-ज़ियाँ का लगा के अंदाज़ा

हमें बताए कि क्या खोया हम ने क्या पाया

बस एक वक़्त की ठोकर ब-शक्ल-ए-शाम-ओ-सहर

हमारे पाँव में लग लग के पूछती है रोज़

कहाँ से आए हो कब तक चलोगे तुम यूँही

जवाब इस का भी है उस के पास ही लेकिन

सवाल करने की आदत सी पड़ गई है उसे

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