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टूटा हुआ आईना जो रस्ते में पड़ा था - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

टूटा हुआ आईना जो रस्ते में पड़ा था

टूटा हुआ आईना जो रस्ते में पड़ा था

सूरज की तरह मेरी निगाहों में चुभा था

नाम अपना ही मैं सब से खड़ा पूछ रहा था

कुछ मेरी समझ में नहीं आया कि ये क्या था

आँखों के दरीचे नज़र आते थे मुक़फ़्फ़ल

और ज़ेहन के कमरे में धुआँ फैल रहा था

जाती हुई बारात ने इक लम्हा ठिठक कर

ठहरी हुई इक लाश पे मातम भी किया था

माज़ी नहीं मरता है यक़ीं आ गया मुझ को

बीता हुआ हर पल वो लिए साथ खड़ा था

तूफ़ान की ज़द में थे ख़यालों के सफ़ीने

मैं उल्टा समुंदर की तरफ़ भाग रहा था

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