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कोई अच्छी सी ग़ज़ल कानों में मेरे घोल दे - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

कोई अच्छी सी ग़ज़ल कानों में मेरे घोल दे

कोई अच्छी सी ग़ज़ल कानों में मेरे घोल दे

क़ैद-ए-तन्हाई में हूँ मैं मुझ को आ कर खोल दे

ये तनाव जिस्म का बढ़ने नहीं देगा तुझे

चुस्त पैराहन में तू अपने ज़रा सा झोल दे

एक लड़की जल रही है चिलचिलाती धूप में

कोई बादल आ के उस पर अपनी छतरी खोल दे

राह तकते जिस्म की मज्लिस में सदियाँ हो गईं

झाँक कर अंधे कुएँ में अब तो कोई बोल दे

मैं ख़रीदार-ए-वफ़ा हूँ तू गिरफ़्तार-ए-वफ़ा

मेरी बाँहों में थिरकता जिस्म अपना तोल दे

देर तक बंजारा कल कोई सदा देता रहा

कौन है बाज़ार में जो जिंस-ए-दिल का मोल दे

जाने कब से फ़ैसला क़िस्मत का सुनने के लिए

मुंतज़िर बैठा हूँ मैं तू अपनी मुट्ठी खोल दे

शेर अच्छे हों तो बे-गाए भी मिल जाती है दाद

तू ख़ुदारा लहन के हाथों में मत कश्कोल दे

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