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जू-ए-रवाँ हूँ ठहरा समुंदर नहीं हूँ मैं - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

जू-ए-रवाँ हूँ ठहरा समुंदर नहीं हूँ मैं

जू-ए-रवाँ हूँ ठहरा समुंदर नहीं हूँ मैं

जो नस्ब हो चुका हो वो पत्थर नहीं हूँ मैं

सूरज का क़हर देखिए मुझ पर कि आज तक

ख़ुद अपने साए के भी बराबर नहीं हूँ मैं

मैं पिघला जा रहा हूँ बदन के अलाव में

और कह रहा हूँ मोम का पैकर नहीं हूँ मैं

मिट्टी सफ़र की पैरों में आँखों में एक ख़्वाब

ठहरूँ कहाँ कि मील का पत्थर नहीं हूँ मैं

दिन भर की भूकी प्यासी चली आ रही है रात

किस दिल से उज़्र कर दूँ कि घर पर नहीं हूँ मैं

बूढ़ी रिवायतों से भरे एक शहर में

यूँ बस गया हूँ जैसे कि बे-घर नहीं हूँ मैं

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