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देर तक रात अँधेरे में जो मैं ने देखा - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

देर तक रात अँधेरे में जो मैं ने देखा

देर तक रात अँधेरे में जो मैं ने देखा

मुझ से बिछड़े हुए इक शख़्स का चेहरा उभरा

क़स्में दे दे के मिरे हाथों ने मुझ को रोका

मैं ने दीवार से कल नाम जब उस का खुर्चा

देख कर उस को लगा जैसे कहीं हो देखा

याद बिल्कुल नहीं आया मुझे घंटों सोचा

मोम-बत्ती को गलाता रहा धीरे धीरे

रात अँधेरे का मिरे कमरे में बहता लावा

कितने मग़्मूम ग़ज़ालों का भरम रखता है

नर्म कपड़े से तराशा हुआ काला बुर्क़ा

क़द्र अब हो कि न हो ज़ेहन-ए-रसा की लेकिन

आ ही जाता है कभी काम ये खोटा सिक्का

सारे दिन मेरी तरह जलता है और शाम ढले

हर-बुन-ए-मू से लिपट जाता है मेरा साया

अपने होंटों पे सजा लेता हूँ मैं झूटी हँसी

अपनी पलकों में छुपा लेता हूँ जलता दरिया

मान लो मेरी जो है उस पे क़नाअ'त कर लो

अब नहीं उतरेगा इस दुनिया में मन्न-ओ-सल्वा

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