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आज़ुर्दगी का उस की ज़रा मुझ को पास था - आफ़ताब शम्सी कविता - Darsaal

आज़ुर्दगी का उस की ज़रा मुझ को पास था

आज़ुर्दगी का उस की ज़रा मुझ को पास था

मैं वर्ना आज उस से ज़्यादा उदास था

सूरज नहीं था दूर सवा नेज़े से मगर

मेरी अना का साया मिरे आस पास था

अब आ के सो गया है समुंदर की गोद में

दरिया में वर्ना शोर ही उस की असास था

रूहें उठीं गले मिलीं वापस चली गईं

इस राज़ के छुपाने को तन पर लिबास था

पढ़ कर जिसे उभरने लगें अन-गिनत सवाल

ऐसे ही इक फ़साने का वो इक़्तिबास था

अब आ के बर्फ़ पिघली है कुछ ए'तिक़ाद की

जिस को यक़ीं समझते रहे हम क़यास था

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