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कहो बुलबुल को ले जावे चमन से आशियाँ अपना - आफ़ताब शाह आलम सानी कविता - Darsaal

कहो बुलबुल को ले जावे चमन से आशियाँ अपना

कहो बुलबुल को ले जावे चमन से आशियाँ अपना

पढ़े गर सद हज़ार अफ़्सूँ न होगा बाग़बाँ अपना

चली जब बाग़ से बुलबुल लुटा कर ख़ानुमाँ अपना

न छोड़ा हाए बुलबुल ने चमन में कुछ निशाँ अपना

न तू ने गुल किया अपना न बुलबुल बाग़बाँ अपना

चमन में किस तरह सीती बनाया ख़ानुमाँ अपना

उठा कर ले चली बुलबुल चमन से आशियाँ अपना

कहा गुल से कि ले ये बेवफ़ा हम से मकाँ अपना

हुई जब बाग़ से रुख़्सत कहा रो रो के या क़िस्मत

लिखा था यूँ कि फ़स्ल-ए-गुल में छोड़ें ख़ानुमाँ अपना

अरे सय्याद यूँ चाहे तो जी और जान से हाज़िर

व-लेकिन तौक़-ए-क़मरी की तरह कर के निशाँ अपना

मिरा जलता है जी इस बुलबुल-ए-बेकस की ग़ुर्बत पर

कि गुल के आसरे पर यूँ लुटाया याँ ख़ानुमाँ अपना

अलम कर इस तरह रोई कि रुस्वा हो गई बुलबुल

डुबाया हाए आँखों ने तमामी ख़ानुमाँ अपना

मगर दिल से बना रखना अली गौहर से प्यारे को

वो शाही गो कि रखता है वले है मेहरबाँ अपना

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