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मुंकिर का ख़ौफ़ - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

मुंकिर का ख़ौफ़

पुराना पासबाँ ज़िल्ल-ए-इलाही का

जिसे चाहे करे मंसब अता आलम-पनाही का

उसे तरकीब आती है

किसी मज़मून-ए-कोहना को नया उनवान देने की

वो दीदा-वर हमेशा से मुअ'य्यन है

हमारे रास्ते के पस्त-ओ-बाला पर

वो दाना अपने मंसूबे बनाता है

हमारी फ़ितरतों की ख़ाक ज़ुल्मत से

हमारी ख़्वाहिश-ए-तकरार की देरीना आदत से

वो मअ'बद-साज़ बुत-गर अपनी हस्ती के तक़द्दुस में

सदा महफ़ूज़ रखता है

हमारे घर को तहक़ीक़ी तजस्सुस की बलाओं से

कहीं औहाम की उम्दा शबीहों में

सक़ाफ़त के निगारिस्ताँ सजाता है

कहीं ख़ुश-फ़हमियों के इस्तिआ'रे से

हरे लफ़्ज़ों के बाग़ीचे खिलाता है

कहीं नोक-ए-सिनाँ के इस्म ओ अफ़्सूँ से

लहू की बूँद में तस्लीम की किरनें जगाता है

क़ुलूब अहल-ए-ज़मीं के उस की मुट्ठी में धड़कते हैं

शुऊ'र उस का सदा मामूर रहता है

हमें अच्छे बुरे के फ़लसफ़े की आड़ में

हम से छुपाने पर

मगर इस का मुदावा क्या

कि वो पर्वरदिगार-ए-ज़ोर-ए-हिकमत अपनी नींदों में

हमेशा से

वजूद-ए-फ़र्द में इक मुज़्तरिब सी शय से डरता है

वो शय जिस की हक़ीक़त

वक़्त का इबलीस उस पर फ़ाश करता है

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