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वो अपने जुज़्व में खोया गया है इस हद तक - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

वो अपने जुज़्व में खोया गया है इस हद तक

वो अपने जुज़्व में खोया गया है इस हद तक

कि उस की फ़हम से बाहर है कल की अबजद तक

खड़ी हैं रौशनियाँ दस्त-बस्ता सदियों से

हिरा के ग़ार से ले कर गया के बरगद तक

उठे तो उस के फ़ुसूँ से लहक लहक जाए

नज़र पहुँच न सके उस की क़ामत-ओ-क़द तक

पता चला कि हरारत नहीं रही दिल में

गुज़र के आग से आए थे अपने मक़्सद तक

वही असास बना उम्र के हिसाबों की

पहाड़ा याद किया था जो एक से सद तक

वही जो दोश पर अपने उठा सका ख़ुद को

नशेब-ए-फ़र्श से पहुँचा फ़राज़-ए-मसनद तक

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