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रिज़्क़ का जब नादारों पर दरवाज़ा बंद हुआ - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

रिज़्क़ का जब नादारों पर दरवाज़ा बंद हुआ

रिज़्क़ का जब नादारों पर दरवाज़ा बंद हुआ

बस्ती के गोशे गोशे से शोर बुलंद हुआ

मतला-ए-बे-अनवार से फूटा शोख़ तबस्सुम किरनों का

रात के घर में सूरज जैसा जब फ़रज़ंद हुआ

सादा बे-आमेज़िश जज़्बा-ए-पीर फ़क़ीर करामत का

जिस के इस्म से मायूसी का ज़हर भी क़ंद हुआ

अव्वल अव्वल शोर उठा सीने में आम तमन्ना का

बंद फ़सीलों के गुम्बद में जो दो-चंद हुआ

दुख को सम्त-शनासाई दी ग़म के क़ुर्बत-दारों ने

दिल धारा दरिया मिल कर बहरा-मंद हुआ

चलिए अपने आप से चिमटे रहना तो मौक़ूफ़ किया

जब से रोज़ के समझौतों का वो पाबंद हुआ

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