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हज़ीमतें जो फ़ना कर गईं ग़ुरूर मिरा - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

हज़ीमतें जो फ़ना कर गईं ग़ुरूर मिरा

हज़ीमतें जो फ़ना कर गईं ग़ुरूर मिरा

उन्ही के दम से मुनव्वर हुआ शुऊ'र मिरा

मैं हैरती किसी मंसूर की तलाश में हूँ

करे जो आ के ये आईना चूर चूर मिरा

रिवाज-ए-ज़ेहन से मैं इख़्तिलाफ़ रखता था

सर-ए-सलीब मुझे ले गया फ़ुतूर मिरा

वो अजनबी है मगर अजनबी नहीं लगता

यही कि उस से कोई रब्त है ज़रूर मिरा

मैं डूब कर भी किसी दौर में नहीं डूबा

रहा है मतला-ए-इमकान में ज़ुहूर मिरा

उसे अब अहद-ए-अलम की इनायतें कहिए

कि ज़ुल्मतों में उजागर हुआ है नूर मिरा

मैं उस लिहाज़ से बे-नाम नाम-आवर हूँ

कि मेरे बा'द हुआ ज़िक्र दूर दूर मिरा

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