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हर किसी का हर किसी से राब्ता टूटा हुआ - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

हर किसी का हर किसी से राब्ता टूटा हुआ

हर किसी का हर किसी से राब्ता टूटा हुआ

आँख से मंज़र ख़बर से वाक़िआ' टूटा हुआ

क्यूँ ये हम-सूरत रवाँ हैं मुख़्तलिफ़ अतराफ़ में

है कहीं से क़ाफ़िले का सिलसिला टूटा हुआ

वाए मजबूरी कि अपना मस्ख़ चेहरा देखिए

सामने रक्खा गया है आइना टूटा हुआ

ख़ुद-ब-ख़ुद बदले तो बदले ये ज़मीं इस के सिवा

क्या बशारत दे हमारा हौसला टूटा हुआ

ख़्वाब के आगे शिकस्त-ए-ख़्वाब का था सामना

ये सफ़र था मरहला-दर-मरहला टूटा हुआ

कुछ तग़ाफ़ुल भी ख़बरदारी में शामिल कीजिए

वर्ना कर डालेगा पागल वाहिमा टूटा हुआ

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