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इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया

इक फ़ना के घाट उतरा एक पागल हो गया

या'नी मंसूबा ज़माने का मुकम्मल हो गया

जिस्म के बर्फ़ाब में आँखें चमकती हैं अभी

कौन कहता है कि उस का हौसला शल हो गया

ज़ेहन पर बे-सम्तियों की बारिशें इतनी हुईं

ये इलाक़ा तो घने रस्तों का जंगल हो गया

इस कलीद-ए-इस्म-ए-ना-मा'लूम से कैसे खुले

दिल का दरवाज़ा कि अंदर से मुक़फ़्फ़ल हो गया

शो'ला-ज़ार-ए-गुल से गुज़रे तो सर-ए-आग़ाज़ ही

इक शरर आँखों से उतरा ख़ून में हल हो गया

शहर-ए-आइंदा का दरिया है गिरफ़्त-ए-रेग में

बस कि जो होना है उस का फ़ैसला कल हो गया

मौसम-ए-ताख़ीर-ए-गुल आता है किस के नाम पर

कौन है जिस का लहू इस ख़ाक में हल हो गया

इस क़दर ख़्वाबों को मसला पा-ए-आहन-पोश ने

शौक़ का आईन बिल-आख़िर मोअ'त्तल हो गया

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