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अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम - आफ़ताब इक़बाल शमीम कविता - Darsaal

अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम

अपनी कैफ़िय्यतें हर आन बदलती हुई शाम

मुंजमिद होती हुई और पिघलती हुई शाम

डगमगाती हुई हर-गाम सँभलती हुई शाम

ख़्वाब-गाहों से उधर ख़्वाब में चलती हुई शाम

गूँध कर मोतिए के हार घनी ज़ुल्फ़ों में

आरिज़-ओ-लब पे शफ़क़ सुर्ख़ियाँ मलती हुई शाम

इक झलक पोशिश-ए-बे-ज़ब्त से उर्यानी की

दे गई दिन के नशेबों से फिसलती हुई शाम

एक सन्नाटा रग-ओ-पय में सदा गूँजता है

बुझ गई जैसे लहू में कोई जलती हुई शाम

वक़्त बपतिस्मा करे आब-ए-सितारा से उसे

दस्त-ए-दुनिया की दराज़ी से निकलती हुई शाम

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