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मुमकिन है शय वही हो मगर हू-ब-हू न हो - आफ़ताब अहमद कविता - Darsaal

मुमकिन है शय वही हो मगर हू-ब-हू न हो

मुमकिन है शय वही हो मगर हू-ब-हू न हो

रेग-ए-रवाँ भी देख कहीं आबजू न हो

क़ाएम इसी तज़ाद के दम से है काएनात

मैं आरज़ू हूँ जिस की मिरी आरज़ू न हो

मंज़र बदल बदल के भी देखा है बारहा

जो ज़ख़्म अब है आँख पे शायद रफ़ू न हो

सहता रहा हूँ एक तसलसुल से इस लिए

ये टूट-फूट ही मिरी वज्ह-ए-नुमू न हो

मैं ख़ुद ही बुझने लगता हूँ जलते हुए चराग़

जिस रोज़ तेरी लौ से मिरी गुफ़्तुगू न हो

देखो बदल के ज़ाविया अपनी निगाह का

जो रू-ब-रू नहीं है वही रू-ब-रू न हो

मेरे वजूद से है ये दुनिया-ए-रंग-ओ-बू

लेकिन मिरा जहान फ़क़त रंग-ओ-बू न हो

मुश्किल मिरी हदों का तअय्युन है 'आफ़्ताब'

वो रौशनी भी क्या है कि जो चार सू न हो

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