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किसी निशाँ से अलामत से या सनद से न हो - आफ़ताब अहमद कविता - Darsaal

किसी निशाँ से अलामत से या सनद से न हो

किसी निशाँ से अलामत से या सनद से न हो

अगर मैं हूँ तो ये होना भी ख़ाल-ओ-ख़द से न हो

मैं एक ऐसे ज़माने में बसना चाहता हूँ

ज़माना जिस का तअ'ल्लुक़ अज़ल अबद से न हो

मिरे अदू वो हक़ीक़त भी क्या हक़ीक़त है

सुबूत जिस का मयस्सर उसी के रद से न हो

इसी लिए तो मैं रखता हूँ ख़ुशबुओं सा मिज़ाज

मैं चाहता हूँ कि मेरा शुमार हद से न हो

बनाने वाला हूँ हाथों से अपने फ़र्दा का

वो ज़ाइचा जो लकीरों से या अदद से न हो

वजूद वाहिमा है ऐ बदन-नज़ाद समझ

ये तेरा साया भी शायद तिरे जसद से न हो

मैं अपना आप उसी के सुपुर्द कर दूँगा

इक ऐसा शख़्स जो अंबोह-ए-नेक-ओ-बद से न हो

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