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दवाम - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

दवाम

मैं तुम्हारे फ़ैसले का हासिल हूँ

तुम मुझ से बे-वज्ह उलझते हो

मैं ने जो तुम्हें कामयाबियाँ दीं

ख़ुशियाँ अता कीं

उसे क्यूँ नहीं शुमार करते

तुम्हारी हरकतों से दर आने वाली

ज़िंदगी भर की नाकामियाँ

तल्ख़ियों की सूरत

जब तुम्हारे रग-ओ-पै में

पैवस्त हो चुकी हैं

तो

तुम मुझ से उलझ रहे हो

तुम ये समझते हो

कि मैं कोई आज़ाद परिंदा हूँ

जो जब चाहा जहाँ चाहा

सुब्ह-ओ-शाम कर लिया

नहीं

मैं एक ज़िम्मेदार मौसम की तरह

अपनी उँगलियों में

हुआ के डोर

लिपटा कर

दामन-ए-आसमाँ पर नक़्श-ओ-निगार

बना देता हूँ

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