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ठोकर से फ़क़ीरों की दुनिया का बिखर जाना - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

ठोकर से फ़क़ीरों की दुनिया का बिखर जाना

ठोकर से फ़क़ीरों की दुनिया का बिखर जाना

ख़्वाहिश का लरज़ जाना अस्बाब का डर जाना

आकाश के माथे पे जादू का सबब ये है

तारों का चमक जाना चंदा का निखर जाना

आ तुझ को बता दूँ मैं अच्छी सी ग़ज़ल क्या है

अफ़्कार के साँचे में लफ़्ज़ों का उतर जाना

इक़रार-ए-मोहब्बत की नाज़ुक सी दलीलें हैं

आँखों में चमक आना ज़ुल्फ़ों का सँवर जाना

बे-रब्त दलीलें हैं उस शोख़ की बातों में

कुछ देर तलक कहना फिर कह के मुकर जाना

दुनिया जिसे कहती है वो नील-कमल तुम हो

हर झील को जचता है तिरा खिल के उभर जाना

तुम मेरी ज़रूरत हो 'आलम' यही कहता है

इस बात का मतलब है तिरे बिन मिरा मर जाना

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