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शम्स मादूम है तारों में ज़िया है तो सही - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

शम्स मादूम है तारों में ज़िया है तो सही

शम्स मादूम है तारों में ज़िया है तो सही

चाँदनी रात में मद-मस्त हवा है तो सही

ख़्वाहिश-ए-इश्क़ की तकमील कहाँ होती है

गरचे वो शोख़ नहीं शोख़-नुमा है तो सही

आहटें जाग के तारीख़ को दस्तक देंगी

आस के सीने में एक ज़ख़्म हरा है तो सही

सुब्ह की राह में ज़ुल्मात के संग आते हैं

मैं ने हर संग को ठोकर पे रखा है तो सही

हाँ उसी उक़्दे से उलझा है तख़य्युल का शुऊ'र

या'नी उलझा हुआ हाथों में सिरा है तो सही

जुम्बिश-ए-लब से मिरे दार पे सर आते हैं

फिर भी कुछ राज़ फ़ज़ाओं में खुला है तो सही

गरचे मैं हादी-ओ-रहबर नहीं हूँ 'आलम' का

फिर भी हाथों में मेरे एक असा है तो सही

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