जगा जुनूँ को ज़रा नक़्शा-ए-मुक़द्दर खींच

जगा जुनूँ को ज़रा नक़्शा-ए-मुक़द्दर खींच

नई सदी को नई कर्बला से बाहर खींच

मैं ज़ेहनी तौर से आज़ाद होने लगता हूँ

मिरे शुऊर मुझे अपनी हद के अंदर खींच

नई ज़मीन लहू का ख़िराज लेती है

दयार-ए-ग़ैर में भी ख़ुशनुमा सा मंज़र खींच

उदास रात में तारे गवाह बनते हैं

रग-ए-हुबाब से तू क़ातिलाना ख़ंजर खींच

अभी सितारों में बाक़ी है ज़िंदगी की रमक़

कुछ और देर ज़रा नर्म गर्म चादर खींच

वजूद-ए-शहर तो जंगल में ढल चुका 'आलम'

अब इस जगह से मुझे जानिब-ए-समुंदर खींच

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