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जब अपना साया ही दुश्मन है क्या किया जाए - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

जब अपना साया ही दुश्मन है क्या किया जाए

जब अपना साया ही दुश्मन है क्या किया जाए

यही तो ज़ेहन की उलझन है क्या किया जाए

हैं जिस के हाथ में ज़र्रे भी माह-ओ-अंजुम भी

उसी के हाथ में दामन है क्या किया जाए

उदास बाम पे मौसम ने खोल दीं ज़ुल्फ़ें

किसी बियोग में जोगन है क्या किया जाए

वो शाम-ए-लुत्फ़-ओ-तरब और चाँदनी सा बदन

इसी ख़ुमार में नागन है क्या किया जाए

वो अपनी शोख़ अदाओं से लूटता है मुझे

बहुत हसीन ये रहज़न है क्या किया जाए

वफ़ा-परस्त है आतिश-फ़िशाँ का रखवाला

सनम-कदे में बरहमन है क्या किया जाए

फ़रेब देता है 'आलम' पे राज करता है

अदू के हाथ में हर फ़न है क्या किया जाए

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