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हिसार-ए-दीद में रोईदगी मालूम होती है - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

हिसार-ए-दीद में रोईदगी मालूम होती है

हिसार-ए-दीद में रोईदगी मालूम होती है

तो क्यूँ अंदेशा-ए-तिश्ना-लबी मालूम होती है

तुम्हारी गुफ़्तुगू से आस की ख़ुश्बू छलकती है

जहाँ तुम हो वहाँ पे ज़िंदगी मालूम होती है

सितारे मिस्ल जुगनू ज़ाइचे में रक़्स करते हैं

ज़रा सी देर में कुछ रौशनी मालूम होती है

जहाँ पर एक जोगन मस्त हो कर गुनगुनाती है

उसी साहिल पे इक गिरती नदी मालूम होती है

उदासी ज़ुल्फ़ खोलेगी दिनों की याद में गुम है

शुऊ'र-ए-गुल को फ़िक्र-ए-तिश्नगी मालूम होती है

जहाँ पे फूल खिलता है सँवरता है बिखरता है

उसी शाख़-ए-मोहब्बत पे कली मालूम होती है

सताती है तुम्हारी याद जब मुझ को शब-ए-हिज्राँ

मुझे ख़ुद अपनी हस्ती अजनबी मालूम होती है

तुम्हारे लम्स को मैं जब कभी महसूस करता हूँ

बहुत हल्की सही इक रौशनी मालूम होती है

फ़ना होना अँधेरी रात की तक़दीर है 'आलम'

मुझे ये बेबसी भी ज़िंदगी मालूम होती है

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