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गुज़रे लम्हात का एहसास हुआ जाता है - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

गुज़रे लम्हात का एहसास हुआ जाता है

गुज़रे लम्हात का एहसास हुआ जाता है

दामन-ए-वक़्त यूँही मुझ से छटा जाता है

मैं उजाले को मोहब्बत का ख़ुदा लिखता हूँ

वो अँधेरे ही से मानूस हुआ जाता है

जिस की ख़ुश्बू से फ़ज़ाओं में महक थी शब-भर

सुब्ह-दम उस की तरफ़ साँप बढ़ा जाता है

मुझ को डर है कोई आबिद न बहक जाए कहीं

दिल-रुबा चाँद का अंदाज़ हुआ जाता है

दूर रह कर भी रग-ए-जाँ से लिपट जाते हैं

और इस दिल में उजाला सा हुआ जाता है

इस क़दर ज़हर पिलाया मुझे उस ने 'आलम'

तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त का एहसास मिटा जाता है

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