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ऐ दोस्त तिरी बात सहर-ख़ेज़ बहुत है - अफ़रोज़ आलम कविता - Darsaal

ऐ दोस्त तिरी बात सहर-ख़ेज़ बहुत है

ऐ दोस्त तिरी बात सहर-ख़ेज़ बहुत है

पर तर्ज़-ए-तकल्लुम तिरा ख़ूँ-रेज़ बहुत है

गुम-सुम सा खड़ा है कोई दरवाज़ा-ए-दिल पर

इस शाम का मंज़र तो दिल-आवेज़ बहुत है

महफ़िल में तिरे होने से है रंग पे मौसम

अहवाल-ए-ख़ास-ओ-आम तरब-ख़ेज़ बहुत है

इक शख़्स जो उलझा है नई फ़िक्र-ओ-नज़र में

वो साहिब-ए-ख़ुश-फ़हम है और तेज़ बहुत है

जो बात तू कहता है वही बात हो शायद

लेकिन तिरी ये बात ग़म-अंगेज़ बहुत है

भड़के हुए शो'ले ही मता-ए-दिल-ओ-जाँ हैं

'आलम' तिरे कूचे में हवा तेज़ बहुत है

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