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शौक़-ए-वारफ़्ता चला शहर-ए-तमाशा की तरफ़ - अफ़ीफ़ सिराज कविता - Darsaal

शौक़-ए-वारफ़्ता चला शहर-ए-तमाशा की तरफ़

शौक़-ए-वारफ़्ता चला शहर-ए-तमाशा की तरफ़

बढ़ गए हम भी हिसार-ए-हुस्न-ए-लैला की तरफ़

हम से मौजें कह रही थीं आ मिरी आग़ोश में

हम कहाँ यूँ जा रहे थे मौज-ए-दरिया की तरफ़

इस क़दर डूबे गुनाह-ए-इश्क़ में तेरे हबीब

सोचते हैं जाएँगे किस मुँह से तौबा की तरफ़

क्या ज़रूरी है कि हिर्स-ए-जल्वा-ए-सद-रंग में

हर नज़र भटके किसी भी हुस्न-आरा की तरफ़

आयत-ए-हुस्न-ओ-मोहब्बत से है बस दो ही मुराद

एक है मेरी तरफ़ इक माह-पारा की तरफ़

शहर-ए-दिल वीराना कर्दम पा-ब-जौलाँ मी-कुनी

जी खिंचा जाता है अपना अब तो सहरा की तरफ़

सारी दुनिया दुश्मन-ए-जाँ बन गई है ऐ 'सिराज'

कोई पत्थर भी न आया तेरे शैदा की तरफ़

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