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बरसों के जैसे लम्हों में ये रात गुज़रती जाएगी - अफ़ीफ़ सिराज कविता - Darsaal

बरसों के जैसे लम्हों में ये रात गुज़रती जाएगी

बरसों के जैसे लम्हों में ये रात गुज़रती जाएगी

तुम सामने आए गर दिल की धड़कन भी ठहर ही जाएगी

पर्दे में रहूँ आँखें मेरी बेताब तो हैं पर ताब नहीं

बे-ताबी-ए-दिल लम्हाती है हालत ये सँभाली जाएगी

आईना-ए-दिल शफ़्फ़ाफ़ तो हो हम को भी सँवरना लाज़िम है

हम को भी पता है मिलने पर चेहरे की बहाली जाएगी

कुछ ख़ुद में कशिश पैदा कर लो कि महफ़िल तुम से आँख भरे

ये चाल बड़े अय्यार की है ये चाल न ख़ाली जाएगी

ऐ काशिफ़-ए-सोज़-ए-हस्ती सुन है तुझ में निहाँ असरार की बू

गर तेरा गुज़र गुलशन से हुआ हर बात निकाली जाएगी

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