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वो मर गई थी - आदिल मंसूरी कविता - Darsaal

वो मर गई थी

उस के ज़हरी होंट काले पड़ गए थे

उस की आँखों में

अधूरी ख़्वाहिशों के देवताओं के

जनाज़े गड़ गए थे

उस के चेहरे की शफ़क़ का रंग

घाएल हो चुका था

उस के जलते जिस्म की ख़ुशबू का सूरज

पर्बतों की चोटियों से नीचे गिर कर

टुकड़े टुकड़े हो चुका था

उस की छाती पर

सुलगते चाँद के सायों के पत्थर

रास्ता रोके खड़े थे

उस के जलते जिस्म के झुलसे हुए सहरा में

पीली हसरतों के आसमाँ

प्यासे पड़े थे

बंद कमरे में

मिरी मौजूदगी से डर गई थी

वो मर गई थी

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