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वक़्त की पीठ पर - आदिल मंसूरी कविता - Darsaal

वक़्त की पीठ पर

वक़्त की पीठ पर

कच्चे लम्हों के धागों में लिपटा हुआ

शहर की सीढ़ियों पर सरकता हुआ

नित नए

ख़ुद-कुशी के तरीक़ों का मूजिद बना

हब्शी रातों के जंगल में बिखरी हुई

लम्स की हड्डियाँ

चुन रहा हूँ न जाने मैं किस के लिए

जब मिरे नाम के लफ़्ज़ तन्हा थे लोगो

तुम्हें सुर्ख़ होंटों की ख़ैरात

कैसे मिली ये बताओ

रेफ़्रीजरेटर में रक्खी हुई तश्तरी में

मिरी दोनों आँखें बरहना पड़ी थीं

वहाँ तक किसी ख़्वाब के हाथ पहुँचे नहीं

कबूतर की आँखों में

टूटे हुए आसमानों का तनज़्ज़ुल न देखो

बदन के शिकस्ता खंडर से निकल भागने के लिए फिर

तुम्हारी मदद की ज़रूरत है मुझ को

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