सियाह चाँद के टुकड़ों को मैं चबा जाऊँ
सियाह चाँद के टुकड़ों को मैं चबा जाऊँ
सफ़ेद सायों के चेहरों से तीरगी टपके
उदास रात के बिच्छू पहाड़ चढ़ जाएँ
हवा के ज़ीने से तन्हाइयाँ उतरने लगें
सजाए जाएँ छतों पर मरी हुई आँखें
पलंग रेत के ख़्वाबों के साथ सो जाए
कसी के रोने की आवाज़ आए सूरज से
सितारे ग़ार की आँतों में टूटते जाएँ
मैं अपनी क़ैंची से काग़ज़ का आसमाँ काटूँ
नहीफ़ वक़्त की रानों पे ख़्वाहिशें रेंगें
लहू का ज़ाइक़ा दाँतों में मुस्कुराने लगे
अगर ये हाथ मिरी पीठ पर चिपक जाएँ
सियाह चाँद के टुकड़ों को मैं चबा जाऊँ
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