साए की पिसली से निकला है जिस्म तिरा
साए की पिसली से निकला है जिस्म तिरा
बोसों का गीला-पन लफ़्ज़ों के होंटों पर
आवाज़ें चलती हैं हाथों में हाथ लिए
काँटों ने लम्हों के ख़्वाबों को नोच लिया
हाथों में तलवारें ले कर वो आए थे
आए थे काट गए मअ'नी के नाक और कान
टूटा है ख़ून कहीं डूबा है अक्स कहीं
सहरा की छाती पर सूरज का रक़्स कहीं
साए की पिसली से निकला है जिस्म तिरा
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