नज़्म
ख़ूँ पत्थर पे सरक आया
गहरा नीला रंग हवा में डूब गया
जल-कन्या के जिस्म पे काले साँप का साया लहराया
दरिया दरिया ज़हर चढ़ा
गीली रेत पे धूप ने अपना नाम लिखा
मुट्ठी में मछली का आँसू सूख गया
घोड़ों की टापों से कमरा गूँज उठा
ख़रगोशों की आँखों से सूरज निकले
फिर दरिया की नाफ़ में कश्ती डूब गई
काग़ज़ के सहरा में पानी मत ढूँडो
अहराम के दरवाज़े कब खुलते हैं
हैंगर पे कपड़े की लाश लटकती है
पर्बत पर्बत नंगी रूह भटकती है
मुझ से ये पूछो लोगो मैं क्या हूँ
ज़ंग-आलूदा शहर पे थूकने आया हूँ
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