फ़ैज़
अब न ज़ंजीर खड़कने की सदा आएगी
ज़िंदाँ महकेगा न अब बाद-ए-सबा आएगी
एक एक फूल के मुरझाए हुए चेहरे पर
रंग बिखरेंगे न खिलता हुआ मौसम कोई
ख़ार के सीने में चुभता हुआ फिर ग़म कोई
आँधी फिर तेज़ है तारों को बुझा दे न कहीं
रात घनघोर है सूरज को छुपा दे न कहीं
और अब शोला-ए-जाँ से भी न उट्ठेगा धुआँ
तीरगी में तिरी साँसों का उजाला भी कहाँ
चश्म-ए-नर्गिस में लहू-रंग है शबनम शायद
और सय्याद का दामन भी तो है नम शायद
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