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एक नज़्म - आदिल मंसूरी कविता - Darsaal

एक नज़्म

उदासी के पीले दरख़्तों की शाख़ों से चिपके हुए

सब्ज़ पत्तों में तेरा तजस्सुस

मिरे जिस्म की टूटती सरहदों पर

ख़यालों के सायों को रुस्वा करेगा

कुएँ के अंधेरे की भीगी हुई

जामुनी आँख की गोल चिकनाई के

सुर्ख़ ख़्वाबों के अंदर

जवाँ लम्स के एक जंगली कबूतर के

फैले हुए पर उफ़ुक़ को छुएँगे

मुझे बंद कमरे में बैठा हुआ देख कर

गोल खिड़की के शीशों पे

बारिश के क़तरों की आँखें खुलेंगी

कोई मरमरीं हाथ ठंडी हवा में

मुझे अपनी जानिब बुलाएगा लेकिन

मुझे ख़ौफ़ है तेरा पीला तजस्सुस

समुंदर पे फैली हुई सूरजी शाम की सीढ़ियों से

तुझे ख़ुद-कुशी की तरफ़ ले न जाए

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