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साँस की आँच ज़रा तेज़ करो - आदिल मंसूरी कविता - Darsaal

साँस की आँच ज़रा तेज़ करो

साँस की आँच ज़रा तेज़ करो

काँच का जिस्म पिघल जाने दो

लाम ख़ाली है उसे मत छेड़ो

नून के पेट में नुक़्ता देखो

रात के पर्दे उलटते जाओ

चाँद का जिस्म बरहना भी हो

सर उठाओ न कनार-ए-दरिया

मौज को सर से गुज़र जाने दो

ख़ुद-ब-ख़ुद शाख़ लचक जाएगी

फल से भरपूर तो हो लेने दो

आँख खुलते ही ये आवाज़ आई

चोर घुस आया है घर में पकड़ो

उँगलियाँ चाटते रह जाओगे

तुम कभी अपना लहू चख देखो

मौत सड़कों पे फिरा करती है

घर से निकलो तो सँभल कर निकलो

कौन अब शेर कहे नज़्म लिखे

शहर ही छोड़ गई जब ज़ेबो

तुम को दावा है सुख़न-फ़हमी का

जाओ 'ग़ालिब' के तरफ़-दार बनो

कल वो 'आदिल' से ये फ़रमाते थे

शाएरी छोड़ के शादी कर लो

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