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मेरे रस्ते में भी अश्जार उगाया कीजे - अदीम हाशमी कविता - Darsaal

मेरे रस्ते में भी अश्जार उगाया कीजे

मेरे रस्ते में भी अश्जार उगाया कीजे

मैं भी इंसाँ हूँ मिरे सर पे भी साया कीजे

रात दिन राह में आँखें न बिछाया कीजे

रौशनी में तो चराग़ों को बुझाया कीजे

आप इतना तो मिरे वास्ते कर सकते हैं

आप उस शख़्स की बातें ही सुनाया कीजे

हाथ में जो है बहार उस को तो आने दीजे

काग़ज़ों पर तो हरे पेड़ बनाया कीजे

रास्ते धूप से पिघले ही चले जाते हैं

आप बादल हैं तो फिर शहर पे साया कीजे

क़ैद-ए-तन्हाई में क्या आएगी कोई आवाज़

बैठ कर अपनी ही ज़ंजीर हिलाया कीजे

जा चुका शहर से वो अपनी उदासी ले कर

उम्र भर अब दर-ओ-दीवार सजाया कीजे

लीजिए तोड़ गया दम वो सदाओं का डसा

चीख़िए अब कि यहाँ शोर मचाया कीजे

फूल खिलते हैं कहाँ ख़ुश्क चटानों में 'अदीम'

राह के संग ही आँखों से लगाया कीजे

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