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क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए - अदीम हाशमी कविता - Darsaal

क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए

क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए

ऐन मुमकिन है उसे ख़ुद ही ख़याल आ जाए

हिज्र की शाम भी सीने से लगा लेता हूँ

क्या ख़बर यूँही कभी शाम-ए-विसाल आ जाए

घर इसी वास्ते जंगल में बदल डाला है

शायद ऐसे ही इधर मेरा ग़ज़ाल आ जाए

धनक उभरे सर-ए-अफ़्लाक कड़ी धूप में भी

दश्त-ए-वहशत में अगर तेरा ख़याल आ जाए

कोई तो उड़ के दहकता हुआ सूरज ढाँपे

गर्द ही सर पे घटाओं की मिसाल आ जाए

छोड़ दे वो मुझे तकलीफ़ में मुमकिन तो नहीं

और अगर ऐसी कभी सूरत-ए-हाल आ जाए

उस घड़ी पूछूँगा तुझ से ये जहाँ कैसा है

जब तिरे हुस्न पे थोड़ा सा ज़वाल आ जाए

कुछ नहीं है तो भुलाना ही उसे सीख 'अदीम'

ज़िंदगी में तुझे कोई तो कमाल आ जाए

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