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ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया - अदीम हाशमी कविता - Darsaal

ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया

ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया

वो मिरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया

घूरता था मैं ख़ला में तो सजी थीं महफ़िलें

मेरा आँखों का झपकना मुझ को तन्हा कर गया

हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का ग़ुबार

शाम का झोंका चमकता शहर मैला कर गया

चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास

मैं समुंदर था वो सूरज मुझ को सहरा कर गया

एक लम्हे में भरे बाज़ार सोने हो गए

एक चेहरा सब पुराने ज़ख़्म ताज़ा कर गया

मैं उसी के राब्ते में जिस तरह मल्बूस था

यूँ वो दामन खींच कर मुझ को बरहना कर गया

रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'

और दिन आया तो आँखों में अँधेरा कर गया

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