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चल दिया वो देख कर पहलू मिरी तक़्सीर का - अदीम हाशमी कविता - Darsaal

चल दिया वो देख कर पहलू मिरी तक़्सीर का

चल दिया वो देख कर पहलू मिरी तक़्सीर का

दूसरा रुख़ उस ने देखा ही नहीं तस्वीर का

बाक़ी सारे ख़त पे धब्बे आँसुओं के रह गए

एक ही जुमला पढ़ा मैं ने तिरी तहरीर का

तू ने कैसे लफ़्ज़ होंटों की कमाँ में कस लिए

इतना गहरा घाव तो होता नहीं है तीर का

उज़्र बाक़ी चाल में है क़ैद गो बाक़ी नहीं

पाँव आदी हो गया है इस क़दर ज़ंजीर का

आ गई कश्ती भटक कर आब से सू-ए-सराब

भर गया रेग-ए-रवाँ से जाल माही-गीर का

बात छोटी तो नहीं तुझ से बिछड़ने की है बात

फ़ैसला तस्लीम कर लूँ किस तरह तक़दीर का

यार लोगों ने उसे कतबा बना डाला 'अदीम'

आख़िरी पत्थर बचा जो उम्र की ता'मीर का

दोस्तों से भी तअ'ल्लुक़ बन गया है वो 'अदीम'

जो तअ'ल्लुक़ है किसी शमशीर से शमशीर का

ज़हर की आँखों में रौशन सूरतें दो हैं 'अदीम'

शक्ल इक सुक़रात की और एक चेहरा हीर का

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