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बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई - अदीम हाशमी कविता - Darsaal

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई

बस कोई ऐसी कमी सारे सफ़र में रह गई

जैसे कोई चीज़ चलते वक़्त घर में रह गई

कौन ये चलता है मेरे साथ बे-जिस्म-ओ-सदा

चाप ये किस की मिरी हर रहगुज़र में रह गई

गूँजते रहते हैं तन्हाई में भी दीवार-ओ-दर

क्या सदा उस ने मुझे दी थी कि घर में रह गई

और तो मौसम गुज़र कर जा चुका वादी के पार

बस ज़रा सी बर्फ़ हर सूखे शजर में रह गई

रात दरिया में फिर इक शो'ला सा चकराता रहा

फिर कोई जलती हुई कश्ती भँवर में रह गई

रात भर होता रहा है किन ख़ज़ानों का नुज़ूल

मोतियों की सी झलक हर बर्ग-ए-तर में रह गई

लौट कर आए न क्यूँ जाते हुए लम्हे 'अदीम'

क्या कमी मेरी सदा-ए-बे-असर में रह गई

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