उस को जब कि मिरे अंजाम से कुछ काम नहीं
उस को जब कि मिरे अंजाम से कुछ काम नहीं
मुझ को भी इश्क़ के इक़दाम से कुछ काम नहीं
जज़्बा-ए-इश्क़ न पहुँचा सका जब मैं उस तक
मुझ को अब नामा-ओ-पैग़ाम से कुछ काम नहीं
घर में जिस के लिए रहता था वही अब न रहा
अब मुझे घर के दर-ओ-बाम से कुछ काम नहीं
मुंतज़िर रहती थी हर शाम तिरी क़ुर्बत की
तू नहीं जब तो मुझे शाम से कुछ काम नहीं
इल्म का जाम दर-ए-इल्म से मिलता है मुझे
मुझ को तो और किसी जाम से कुछ काम नहीं
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