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उस को जब कि मिरे अंजाम से कुछ काम नहीं - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

उस को जब कि मिरे अंजाम से कुछ काम नहीं

उस को जब कि मिरे अंजाम से कुछ काम नहीं

मुझ को भी इश्क़ के इक़दाम से कुछ काम नहीं

जज़्बा-ए-इश्क़ न पहुँचा सका जब मैं उस तक

मुझ को अब नामा-ओ-पैग़ाम से कुछ काम नहीं

घर में जिस के लिए रहता था वही अब न रहा

अब मुझे घर के दर-ओ-बाम से कुछ काम नहीं

मुंतज़िर रहती थी हर शाम तिरी क़ुर्बत की

तू नहीं जब तो मुझे शाम से कुछ काम नहीं

इल्म का जाम दर-ए-इल्म से मिलता है मुझे

मुझ को तो और किसी जाम से कुछ काम नहीं

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