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तू जो चाहे भी तो सय्याद नहीं होने के - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

तू जो चाहे भी तो सय्याद नहीं होने के

तू जो चाहे भी तो सय्याद नहीं होने के

लब हमारे लब-ए-फ़रियाद नहीं होने के

उस के कूचे में मियाँ ख़ाक उड़ाते क्यूँ हो

तुम से मजनूँ तो उसे याद नहीं होने के

कोई अच्छी भी ख़बर कान में आए यारब

ऐसी ख़बरों से तो दिल शाद नहीं होने के

तू रहे हम से ख़फ़ा कितना ही चाहे लेकिन

हम मगर तुझ से तो नाशाद नहीं होने के

कार-ए-दुनिया को हैं दरकार हमारी उम्रें

कार-ए-दुनिया से तो आज़ाद नहीं होने के

अन-गिनत जागते चेहरे गए मिट्टी के तले

अब नए ज़ुल्म तो ईजाद नहीं होने के

ता-क़यामत वही इक नाम रहेगा आबाद

हम कभी मुस्तक़िल आबाद नहीं होने के

ख़ाक हो जाएँगे ये तो है मुक़द्दर अपना

हम मगर वो हैं कि बर्बाद नहीं होने के

चाहे नमरूद हो फ़िरऔन हो या कि हो यज़ीद

साहब-ए-शजरा-ओ-औलाद नहीं होने के

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