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मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है

मोहब्बत की सज़ा पाई बहुत है

हमारे ग़म में गीराई बहुत है

खड़ा मेले में अक्सर सोचता हूँ

मिरे अंदर तो तन्हाई बहुत है

नहीं है और कोई सिर्फ़ मैं हूँ

फ़लक से ये सदा आई बहुत है

कमा लें शोहरतें सस्ती सी हम भी

मगर इस में तो रुस्वाई बहुत है

तसव्वुर शर्त सब कुछ सामने है

नज़र वालों को बीनाई बहुत है

'अदील' उस को कहाँ तुम भूल पाए

क़सम गो तुम ने ये खाई बहुत है

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