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हम ने थामा यक़ीं को गुमाँ छोड़ कर - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

हम ने थामा यक़ीं को गुमाँ छोड़ कर

हम ने थामा यक़ीं को गुमाँ छोड़ कर

इक तरफ़ हो गए दरमियाँ छोड़ कर

दिल न माना जिएँ कहकशाँ छोड़ कर

जा के बस्ते कहाँ ख़ानदाँ छोड़ कर

अपना घर छोड़ कर बस्तियाँ छोड़ कर

बे-अमाँ हो गए हम अमाँ छोड़ कर

सो गए बीच में दास्ताँ छोड़ कर

हम अलग हो गए कारवाँ छोड़ कर

कैसे नादाँ थे हम सब कहाँ आ गए

अपने आबाओ-जद के मकाँ छोड़ कर

साथ चलते रहे ये न सोचा कभी

कौन जाएगा किस को कहाँ छोड़ कर

आज भी मुंतज़िर हम वहीं हैं तिरे

कल गया था हमें तो जहाँ छोड़ कर

राह अपनी निकाली तो मंज़िल मिली

हम चले जादा-ए-रहबराँ छोड़ कर

है ये मा'लूम गर जिस्म-ओ-जाँ से गए

सब चले जाएँगे मेहरबाँ छोड़ कर

गर तुम्हारी तमन्ना है दाइम रहो

जाओ ज़ेहनों में रौशन निशाँ छोड़ कर

तुम तो तन्हा हुए जीते-जी ही 'अदील'

लोग जाते हैं तन्हा जहाँ छोड़ कर

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