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हम अपना आप लुटाने कहाँ पे आ गए हैं - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

हम अपना आप लुटाने कहाँ पे आ गए हैं

हम अपना आप लुटाने कहाँ पे आ गए हैं

ख़ुद अपनी क़द्रें गँवाने कहाँ पे आ गए हैं

दिलों से दिल मिले रहते थे ग़ुर्बतों में मियाँ

शिकम की आग बुझाने कहाँ पे आ गए हैं

लिखा था पुरखों ने सदियों में जिन को मेहनत से

वो सारे शजरे जलाने कहाँ पे आ गए हैं

जो चाहते थे रहे अपनी ज़ात तक हर बात

वो अपने ज़ख़्म दिखाने कहाँ पे आ गए हैं

ज़मीं पे अपनी ही जल बुझ के ख़ाक हो जाते

हम अपने दिल को जलाने कहाँ पे आ गए हैं

ये वो जगह है जहाँ जिस्म तक नहीं छुपते

हम अपने सर को छुपाने कहाँ पे आ गए हैं

किसी भी रिश्ते की इज़्ज़त यहाँ नहीं बाक़ी

मियाँ ये आज ज़माने कहाँ पे आ गए हैं

ये सच है अहद-ए-तरक़्क़ी किया था ख़ुद से 'अदील'

मगर ये अहद निभाने कहाँ पे आ गए हैं

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