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डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को - अदील ज़ैदी कविता - Darsaal

डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को

डराएगी भला क्या तेरी गर्दिश आसमाँ मुझ को

मिला रब से दुआ-ए-फ़ातिमा का साएबाँ मुझ को

चली है छोड़ कर तू क्यूँ बहार-ए-गुलिस्ताँ मुझ को

ख़ुदा जाने कहाँ ले जाए अब बाद-ए-ख़िज़ाँ मुझ को

मैं शुक्र-ए-रब का क़ाइल हूँ हवा कैसी ही चलती हो

पता आसानियों का दे गईं हैं सख़्तियाँ मुझ को

जला दूँगा हुसूल-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद की ख़ातिर

जलानी पड़ गईं गर सारी अपनी कश्तियाँ मुझ को

न शम-ए-अंजुमन में हूँ न परवानों का मेला है

कहाँ था मैं कहाँ ले आई है उम्र-ए-रवाँ मुझ को

सुना है सब भुला बैठे 'अदील'-ए-दिल-शिकस्ता को

न जाने आ रही हैं शाम से क्यूँ हिचकियाँ मुझ को

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