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नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता - अदीब सहारनपुरी कविता - Darsaal

नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता

नग़्मा-ए-इश्क़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता

ज़िक्र-ए-नाज़ुक-बदनाँ और ज़रा आहिस्ता

मेरे महबूब की यादों के भड़कते हैं चराग़

ऐ नसीम-ए-गुज़राँ और ज़रा आहिस्ता

जिस तरफ़ से वो गुज़रते हैं सदा आती है

ऐ क़रार-ए-दिल-ओ-जाँ और ज़रा आहिस्ता

दिल हर इक गाम पे लोगों ने बिछा रक्खे हैं

और ऐ सर्व-ए-रवाँ और ज़रा आहिस्ता

कूचा-ए-दोस्त में आहिस्ता-रवी के बा-वस्फ़

दिल ये कहता है याँ और ज़रा आहिस्ता

उन पे मौज-ए-नफ़स-ए-गुल भी गिराँ गुज़रे है

पुर्सिश-ए-ग़म-ज़दगाँ और ज़रा आहिस्ता

बाँध कर अहद-ए-वफ़ा कोई गया है मुझ से

ऐ मिरी उम्र-ए-रवाँ और ज़रा आहिस्ता

कम इबादत से नहीं ज़िक्र बुतों का भी 'अज़ीज़'

बारे तौसीफ़-ए-बुताँ और ज़रा आहिस्ता

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