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मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता - अदीब सहारनपुरी कविता - Darsaal

मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता

मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता

सर-ए-राह मंज़िलों तक न अगर ग़ुबार होता

मैं तुझे ख़ुदा समझ कर न गुनाहगार होता

अगर एक बे-नियाज़ी ही तिरा अशआर होता

जो सितम-ज़दों का या-रब कोई ग़म-गुसार होता

तो ग़म-ए-हयात इतना न दिलों पे बार होता

मिरी ज़िंदगी में शामिल जो न तेरा प्यार होता

तो नशात-ए-दो-जहाँ भी मुझे नागवार होता

यही महर ओ माह ओ अंजुम को गिला है मुझ से या-रब

कि उन्हें भी चैन मिलता जो मुझे क़रार होता

न सुकून-ए-दिल की चाहत में तड़प 'अदीब' इतना

किसी और को तू मिलता जो कहीं क़रार होता

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