मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता
मिरे शौक़-ए-जुस्तुजू का किसे ए'तिबार होता
सर-ए-राह मंज़िलों तक न अगर ग़ुबार होता
मैं तुझे ख़ुदा समझ कर न गुनाहगार होता
अगर एक बे-नियाज़ी ही तिरा अशआर होता
जो सितम-ज़दों का या-रब कोई ग़म-गुसार होता
तो ग़म-ए-हयात इतना न दिलों पे बार होता
मिरी ज़िंदगी में शामिल जो न तेरा प्यार होता
तो नशात-ए-दो-जहाँ भी मुझे नागवार होता
यही महर ओ माह ओ अंजुम को गिला है मुझ से या-रब
कि उन्हें भी चैन मिलता जो मुझे क़रार होता
न सुकून-ए-दिल की चाहत में तड़प 'अदीब' इतना
किसी और को तू मिलता जो कहीं क़रार होता
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